नई दिल्ली. देश में दवा (Medicines) सहित मेडिकिल ट्रीटमेंट की कीमतों (Prices of Medical Treatment) में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, जिसके कारण मध्यम वर्गीय और गरीब परिवारों (Middle Class and Poor Families) की परेशानी बढ़ गई है. इसके बावजूद इलाज कराना और दवा खरीदना लोगों की मजबूरी है. प्राइवेट अस्पतालों (Private Hospitals) में इलाज कराना आम लोगों के लिए पहले भी आसान नहीं था और अब कोरोना काल (Covid-19) के बाद तो और मुश्किल हो गया है. केंद्र सरकार की आयुष्मान कार्ड योजना (Ayushman Card Yojana) से लेकर राज्य सरकारों की गरीब परिवारों के लिए बनाई गई हेल्थ स्कीमें (Health Schemes) इन अस्पतालों में दम तोड़ती नजर आ रही हैं. वहीं, एम्स (AIIMS) जैसे सरकारी अस्पतालों में भी इलाज कराना अब गरीबों के लिए महंगा (Expensive) होता जा रहा है. दिल्ली एम्स को छोड़ दें तो अन्य सारे एम्स में इलाज कराना गरीबों के लिए पहले की तुलना में महंगा हो गया है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि दवाइयों की कीमतों में कमी के सरकारी दावे और अस्पतालों में पैथलैब जांच को लेकर बनाई गई गाइडलाइंस का कितना अमल हो रहा है?
बिहार के बेगुसराय के रहनेवाले राघवेंद्र कुमार कहते हैं, ‘माताजी को सांस की समस्या के कारण पटना एम्स में भर्ती कराया. हमने एक कॉरपोरेट हॉस्पिटल चुनने के बजाए सरकारी अस्पताल इसलिए चुना ताकि वहां पर इलाज सस्ता हो जाएगा. माताजी को सांस और हार्ट की समस्या थी, जिसे चिकित्सकीय भाषा में एक्यूट इक्वेशन ऑफ सीओपीडी (Acute Exacerbation of COPD) कहा जाता है. 8 दिनों के उपचार के पश्चात माताजी सकुशल घर लौट आईं. इस दौरान हमें पटना एम्स में तकरीबन 90 हजार रुपये इलाज में लग गया. यह खर्चा अस्पताल में बेड्स, दवा और जांच रिपोर्ट की हैं. अगर मरीज के साथ रहने वाले तीमारदार और अन्य खर्चे जोड़ दिए जाएं तो यह लागत एक लाख से भी ज्यादा तक पहुंच जाएगा. ऐसे में पटना एम्स में इलाज कराने के बाद भी हमें सोचने के लिए मजबूर किया कि आखिर बगैर शल्य क्रिया के इतना खर्च कैसे आ गया?’
पटना एम्स में अपनी मां रबीना खातुन का इलाज करा रहे पूर्णियां के शाहनवाज ने बताया कि मेरी मां को सांस संबंधी बीमारी थी.
क्यों बढ़ते जा रहे हैं इलाज के खर्चे?
पटना एम्स में ही अपनी मां रबीना खातुन का इलाज करा रहे पूर्णियां के शाहनवाज ने न्यूज 18 हिंदी के साथ बातचीत में बताया, ‘मेरी मां को सांस संबंधी बीमारी थी. 5 दिसंबर को पटना एम्स में भर्ती हुई थीं. 7 दिसंबर को आयुष्मान कार्ड के तहत एम्स में भर्ती लिया गया. 7 दिसंबर तक एम्स ने हमसे 20,000 रुपये ले लिए थे. 5 दिसंबर से आईसीयू में भर्ती रहने के बाद भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो डॉक्टरों ने 16 दिसंबर को वेंटिलेटर पर डाल दिया. इस बीच अस्पताल प्रशासन ने कहा है कि वेंटिलेटर पर डालने वाले मरीजों को आयुष्मान कार्ड के तहत एक दिन में अधिकतम 4500 रुपया ही मिलता है. ऐसे में आपकी माताजी को कुछ ऐसी दवाई चाहिए, जो महंगी है और हो सकता है वो दवाई देने के बाद आपकी माताजी की सेहत में सुधार आ जाए. यह फैसला आप पर है कि आप दवा खरीदते हैं या नहीं. अगर हां तो आपको बाहर से दवा मंगानी पड़ेगी या फिर अस्पताल में ही किसी मरीज के अकाउंट में आप पैसा डाल दो तो हमलोग वह मेडिसिन एम्स से सस्ती दरों में उपलब्ध करा देंगे. आयुष्मान कार्ड होने के बावजूद मेरे तकरीबन एक लाख रुपये इन दवाइयों में ही लग गए और माताजी का भी 28 दिसंबर को इंतकाल हो गया.’
गंभीर बीमारियों के लिए अतिरिक्त पैसे खर्च करने पड़ते हैं
डॉक्टरों के मुताबिक, ‘रोग का पता लगाने में जो टेस्ट होते हैं, उसमें खर्च ज्यादा आ जाते हैं. 25-40 प्रतिशत खर्चे केवल रोग का पता लगाने में खर्च हो जाता है. इसके बाद गंभीर बीमारियां जैसी डायलेसिस, कैंसर के लिए मोनोग्राफी या कीमो पर चिकित्सा खर्च और बढ़ जाता है. लेकिन, गरीबों के लिए बनाए गए हेल्थ कार्ड में कई तरह की शर्तें रहती हैं, जिनसे गरीब मरीजों का गंभीर बीमारियों में अतिरिक्त पैसे खर्च करने पड़ते हैं. डॉ अमित कुमार कहते हैं, ‘इलाज के आधुनिक उपकरण बेहद महंगे हो गए हैं. खासकर सीटी स्कैन और एमआरआई की मशीनें करोड़ों रुपयों में खरीदी जा रही हैं. इसके साथ ही किडनी के पत्थर को तोड़ने वाले यंत्र लिथोटिप्सी 70 लाख और कैंसर की जांच की मशीन मेमोग्राफी 60 लाख रुपये में आती है. कुछ मेडिसिन और सूई भी काफी महंगी हो गई हैं, जो खतरनाक बीमारियों के काम में आते हैं. ऐसे में आप सस्ते इलाज की कल्पना कैसे कर सकते हैं?’
दिल्ली एम्स देश के दूसरे एम्स से अभी भी सस्ता इलाज करता है. (फाइल फोटो)
क्या कहते हैं दवा कारोबार से जुड़े लोग
दवा कारोबार से जुड़े राहुल कुमार कहते हैं, ‘कोरोना काल के बाद से अपोलो, मैक्स, मेदांता और फोर्टिस जैसे प्रमुख प्राइवेट हॉस्पिटल्स भी बढ़ती लागत का रोना रोते हुए ट्रीटमेंट पैकेज दरों को कई प्रतिशत तक बढ़ा दिया है. इन अस्पतालों में अब नकद भुगतान करने वाले मरीजों के लिए भी कीमतें बढ़ गई हैं. मेडिक्लेम लेने वाले ही नहीं इन अस्पतालों में नकद भुगतान करने वाले मरीजों की संख्या भी कोरोना काल के बाद से बढ़ गई हैं. हालांकि, मेडिकल टुरिज्म की बात करें तो भारत में इलाज कराना अभी भी दूसरे देशों की तुलना में काफी सस्ता है. यही कारण है कि इन अस्पतालों में विदेशी मरीजों की संख्या कोरोना काल के बाद और बढ़ गई हैं.’
प्राइवेट अस्पतालों ने इसलिए बढ़ाया इलाज का खर्चा
गौरतलब है कि इलाज महंगा होने पर इन फाइव स्टार अस्पतालों का तर्क है कि कोरोना काल के बाद से बढ़ते मैनपावर लागत और अन्य परिचालन लागतों और बंधे खर्चे जैसे लाइट, रेंट की दरों में बढ़ोतरी हुई है. इन अस्पतालों का तर्क है कि स्वच्छता, मानव संसाधन और अन्य तरह की लागत हमारी मार्जिन को खा रही हैं, इसलिए किसी बिंदु पर हमें लागत को पार करना ही पड़ेगा. ऐसे में ट्रीटमेंट रेट को बढ़ाने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है.
देश के मध्यमवर्गीय और गरीब परिवारों के सामने दवा खरीदने से लकर जांच कराने का खर्चा बढ़ गया है.
दवा की कीमतों में कितना आया उछाल
गौरतलब है कि हाल के दिनों में देश के मध्यमवर्गीय और गरीब परिवारों के सामने दवा खरीदने से लकर जांच कराने का खर्चा बढ़ गया है. कोरोना काल के बाद से बीते एक साल में दवा की कीमतों में 35 से 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. एंटीबायोटिक, मल्टी विटामिन, जिंक, आयरन, कैल्शियम की मांग बढ़ने के बाद दवा कंपनियों ने दाम में बेताहशा बढ़ोतरी कर दी है. इसके साथ कार्डियेक, डायबिटीज, हाइपर टेंशन की सभी प्रकार के दवाओं के दाम में बढ़ोतरी हुई है. इसके साथ देश के छोटे से लेकर बड़े शहरों में अल्ट्रासाउंड, एंजियोग्राफी, सिटी स्कैन, एमआरआई सहित पैथलैब जांच में भी 40 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है.
सर्दी, खांसी, बुखार से लेकर एलर्जी की दवाओं में भी 25 से 35 प्रतिशत क तेजी आई है. आपको बता दें कि गले की इंफेक्शन दूर करने के लिए एक साल पहले जो टेबलेट 48 रुपये में मिलती थी, उसकी कीमत अब 80 रुपये हो गई है. इसी तरह पेट संबंधी गड़बड़ियां दूर करने के लिए जो एंजाइम 95 रुपये में मिलती थी वह अब 115 रुपये में मिल रही है. ब्लड प्रेशर, गैस, सर्वाइकल की दवाओं के दाम में भी 30 से 35 प्रतिशत तक बढ़ी है.